शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

अब नहीं बाबूजी

कहानी: हेम चन्द्र जोशी 
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शहर के मुख्य चैराहे पर स्थित उस हनुमान मंदिर से मेरी बहुत सी भूली बिसरी बातें जुड़ी हुई हैं। मैं बचपन में पिताजी के साथ अक्सर हर मंगलवार को मंदिर जाया करता था।
मेरे मन में सदा यही लालच रहता था कि मंदिर जाने पर ढेर सारा प्रसाद खाने को मिलेगा। आंखे बंद किए भगवान के सामने खड़े पिताजी को देखकर मैं अक्सर सोचता था कि वो आखिर भगवान से मांगते क्या हैं ? ऐसे मौकों पर मैं प्रसाद की थैली पर आंखे गड़ाए रखता था। पुजारी जी जब टीका व चरणामृत देने के बाद प्रसाद की थैली से मिठाई निकालते तो मुझे ऐसा लगता था कि मानो कोई मेरे हिस्से की मिठाई ले रहा हो।
फिर मैं धीरे धीरे कुछ बड़ा हो गया। मुझे अच्छे व बुरे काम में फर्क समझ में आने लगा। अब मैं अपनी छोटी बहन की चाकलेट भी कभी कभी मौका मिलने पर चुपके से निकाल कर खाने लगा था। जब बहन रो-रो कर सारे घर को सिर पर उठा लेती थी तो मुझे अपनी शैतानी पर बड़ा मजा आता था।
आखिर चोरी के बाद पकड़े जाने से बचने का अपना ही सुख था। पर जब बहन भगवान को साक्षी मानकर चोर को दण्ड देने की प्रार्थना करती तो मैं मन ही मन घबरा जाता था। मैं हनुमान जी से अक्सर माफी मांग कर बहन के  श्राप  से मुक्त होने की कोशिश करता था।
मंदिर जाने का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कभी टूटा ही नहीं। मंदिर के आसपास इकट्ठे होने वाले एक एक भिखारी, प्रसाद मांगने वाले लड़कों व ठेले वालों को मैं पहचानने लगा। यदि कहीं उनमें से कोई मुझे नहीं दिखता तो मेरी आंखे दूर तक उसको ढूंढती सी नजर आती। कुछ ऐसी ही हालत मेरे बारे में भी थी। मंदिर के आसपास के सभी लोग मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे। प्रसाद के छोटे छोटे टुकड़ों को ठेलम-ठेल के बीच चारों ओर से लपकते हुए हाथों में बांटकर मुझे पुण्य लूटने की असीम संतुष्टि होती थी।
मैं नियमित रूप से एक विशेष मिठाई के ठेले से ही प्रसाद खरीदता था। 
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इसी ठेले वाले के साथ एक लड़का मुझे हमेशा काम करता दिखाई देता था। मैंने मन ही मन उसका नाम कालू रख छोड़ा था। ग्राहकों के चप्पल जूतों का ध्यान रखना, उनके हाथ पैर  धुलवाना आदि उसका काम था। इसी सुविधा के कारण उस ठेले पर ग्राहकों की कुछ ज्यादा ही भीड़ रहा करती थी।
मंदिर से लौटते समय मैं प्रसाद का एक छोटा सा टुकड़ा कालू को भी देता था। वह मुस्कुरा कर उसको मुंह में डाल लेता था। मेरे नियमित रूप से मंदिर आने पर कालू बहुत प्रभावित था। मेरे लिए उसके मन में अपार  श्रद्धा थी। उसकी बातों से पता चलता था कि उसकी हनुमान जी के प्रति असीम आस्था है। वह मुझे हमेशा संतुष्ट दिखाई देता था।
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मैं कभी कभी सोचता था कि मिठाई वाले ने क्यों अपने लड़के को इस काम में लगा रखा है ? वह क्यों नहीं उसको पढ़ाता-लिखाता है।
एक दिन मुझे मालूम चला कि वह मिठाई वाले का बेटा न होकर उसका नौकर है। कालू के पिता नहीं थे और उसकी मां उसकी देखरेख करती थी। कालू स्कूल भी जाता था और इधर-उधर काम करके अपना स्कूल का खर्चा भी चलाता था। मुझे कालू से थोड़ी हमदर्दी सी हो गई लेकिन मात्र मेरी हमदर्दी से कालू का पेट तो भर नहीं सकता था। कालू हमेशा मुझे काम करता मिलता था। पर मैं उसको कभी कुछ दे नहीं सका। वह तो मात्र प्रसाद के एक छोटे से टुकड़े को पाकर ही मेरे ऊपर निछावर था।
एक दिन मैने देखा कि कालू दुकान से दूर खड़ा है। मुझे दुकान वाले ने बताया कि उसने कालू को निकाल दिया है क्योंकि उसने दुकान में चोरी करने की कोशिश की है।
कालू ने उसकी बातों का प्रतिकार करते हुए कहा - "बाबू जी यह झूठ बोल रहे हैं। मैंने आज तक चोरी नहीं की है। ये मेरे काम के पैसे नहीं देना चाहते हैं इसीलिए ऐसा कह रहे है। आप मेरे पैसे दिलवा दीजिए नहीं तो मैं स्कूल की फीस नहीं जमा करवा पाऊँगा।" - उसने कातर दृष्टि से बहुत सी उम्मीद के साथ मुझसे कहा।
पता नहीं क्यों कालू की कातर वाणी भी मुझे भेद नहीं पाई। मुझे मन ही मन लगा कि कालू ने जरूर चोरी की होगी। मुझे कालू के भोलेपन में उसकी चालाकी दिखाई देने लगी। मैंने धीरे से मिठाई वाले से कहा -  "सच भाई! आज के जमाने में किस पर विश्वास किया जाए कुछ समझ मे नहीं आता है।"
मैं भगवान के दर्शन कर पुण्य लूटता हुआ घर वापस चला आया। इसके बाद कई मंगलवारों को मुझे कालू नजर नहीं आया। फिर महीनों बाद एक दिन कालू मुझे मंदिर के बाहर खड़ा मिला। मुझे देखते ही वह मेरी ओर चला आया। वह शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने उदास आंखो से कहा - "बाबूजी मेरी मां बहुत बीमार है। कुछ रूपये उधार दे दीजिए। मैं आपका रूपया जरूर वापस कर दूंगा। आप तो भक्त है। सदा ईश्वर पर विश्वास करते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपको पैसा अवश्य वापस कर दूंगा।"
मैंने कालू को देखा। मुझे लगा वह सच बोल रहा है। मुझे चुप देखकर उसने कहा - "साहब आप पता नहीं कितने रूपये व मिठाई भगवान पर चढ़ा जाते हैं। ढेर सारा पेट्रेIल मंदिर आने के लिए खर्च कर डालते हैं।  एक पचास का नोट मुझे भी उधार दे दीजिए। साहब मेरी मां बच जाएगी।" - उसने व्याकुल आवाज में कहा। उसकी रोनी सी आवाज ने मुझे आहत तो कर दिया किन्तु उस पर पचास रुपया खर्च करने का औचित्य मेरा मन नहीं समझ सका। मैंने उसकी बात का कोई भी जवाब नहीं दिया। मैं आगे बढ़ने लगा तो वह मेरे पैरों में गिर पड़ा और बोला- "बाबूजी मेरी मां मर जाएगी। मैं अनाथ हो जाऊँगा। मेरे ऊपर कृपा करिये बाबूजी। मेरी माँ को बचा लीजिए।"
मैंने टालने के लिए मजबूर होकर कहा - " मेरे पास रुपए नहीं हैं।"
"बाबूजी प्रसाद चढ़ाने के रुपए ही मुझे उधार दे दीजिए। यह मेरे लिए वरदान के समान होगा।" - उसने कहा.
मैंने उसकी बातें अनसुनी सी कर दीं। मैं एक रूढ़ीवादी की तरह भगवान के दर्शन करने चला गया। जब मैं वापस आया तो वह प्रसाद का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वहां पर उपस्थित नहीं था। मेरा मन खिन्नता से भर गया। मुझे लगा कि मुझे उस पर विश्वास करना चाहिए था। उसकी सहायता करनी चाहिए थी। आज प्रसाद चढ़ाकर अवश्य ही भगवान प्रसन्न नहीं हुए होंगे। भगवान तो सदा दुखियों के साथ ही रहते हैं।
कालू की सहायता न करने का मुझे बेहद अफसोस था। कालू की पीड़ा मेरे मन में घर कर गई। हर मंगलवार को मैं अब मंदिर के आसपास कालू को ढूंढा करता था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने उसकी सहायता नहीं की। उसके असीम विश्वास को मैंने ठेस पहुंचाई थी। अब मैं कालू की सहायता करके प्रायश्चित करना चाहता था।
फिर एक दिन जब मैं यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट खरीदकर मैं चाय पीने के लिए एक ठेले पर खड़ा था कि तभी किसी की आवाज आयी - "बाबूजी नमस्कार! कैसे हैं आप ?"
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मैंने देखा कि हंसता हुआ कालू मेरे सामने खड़ा है। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी मासूमियत नहीं थी। मुझे लगा कि वह एकाएक काफी सयाना हो गया है। एक छोटा सा बच्चा इतनी कम उम्र में इतना परिपक्व कैसे बन जाता है ? मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। इससे पहले कि मैं कालू से कुछ पूछता उसने जाने की इजाजत मांगी। मैंने प्रायश्चित के कारण बटुवे से सौ रुपए का एक नोट कालू को देना चाहा पर कालू ने बड़ी ही गंभीरता से कहा - "बाबूजी मुझे अब रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मैं भीख भी नहीं लेता। आज मैं अनाथ हूं। इस दुनिया में अकेला। उस दिन आपने मुझे रुपए नहीं दिए पर किसी और को भी मेरे ऊपर दया नहीं आई। थोड़े से पैसों के कारण मेरी मां चली गई। जब मनुष्य के दुख को मनुष्य नहीं समझ सकता है तो आप कैसे मान लेते हैं कि ऐसे मनुष्यों की पुकार को ईश्वर सुनता होगा ?"
"माफ करना मुझे।" - मैंने प्रायश्चित की अग्नि में जलते हुए सौ रुपए का नोट पकड़ाने का प्रयास किया।
"अब नहीं बाबूजी। यह नोट मेरी मां को अब वापस नहीं ला सकता।" - कालू ने सिर हिलाते हुए कहा और फिर वह धीरे से वापस मुड़ गया। मैंने डबडबाई आंखों से देखा कि कालू के कंधे पर आज स्कूल के बस्ते के स्थान पर पालिश वाला झोला लटका हुआ था। उसकी इस हालत के लिए मैं भी एक हद तक जिम्मेदार था। इस पीड़ा से विमुक्त होने का मेरे पास कोई मौका नहीं था।
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रविवार, 22 मार्च 2015

थैंक्यू डाक्टर

थैंक्यू  डाक्टर

मेरा काम ही ऐसा है कि छोटे बच्चे मेरे पास आना पसंद नहीं करते हैं। जो आता भी है उसे जाने कितना बहला व फुसला कर उनके माता-पिता मेरे पास लाते हैं। मेरे क्लीनिक के आगन्तुक कक्ष तक तो अक्सर सब ठीक ठाक चलता है। पर डैंन्टल चेयर पर बैठते-बैठते करीब-करीब सभी बच्चे की सांसे थम सी जाती है।

एक दिन की बात है। एक व्यस्ततम दिन का कार्य निपटा कर मैं क्लीनिक से घर पहुंचा ही था। तभी मुझे लगा कि बाहर कोई आया है। मालूम करने पर पता चला कि एक महिला एक बच्ची के साथ खड़ी  हैं। वे बच्ची को दिखाना चाहती थी। मैं बहुत थका हुआ था। थोड़ी  देर आराम करने के बाद मुझे फिर देर रात तक शाम के मरीजों को देखना था। मुझे खीज सी आ गई थी। फिर भी मै यह सोच कर बाहर निकला कि मैं  उनको शाम को क्लीनिक में आने को कह दुंगा। बाहर निकलते-निकलते न जाने कहां से मुझे मां की नसीहतें याद आ गई। पहले दिन जब मैंने अपने घर में क्लीनिक खोली थी तो मां ने मुझसे कहा था - " बेटा अपने घर व क्लीनिक से कभी किसी को निराश वापस मत भेजना यही तुम्हारी सफलता की कुंजी होगी।" यह विचार आते आते मेरी थकान न जाने कहाँ  फुर्र हो गई । 
"नमस्कार डाक्टर साहब। मैं असमय कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूं। पर क्या करुं। मेरी बेटी कुछ देर पहले स्कूल में गिर गई थी। इसका सामने का दांत थॊडा सा टूट गया है। यदि आप देख लेते तो बड़ी  कृपा होगी।" एक सधी आवाज में उन्होंने विनती की। 
मैंने बच्ची का दांत देखा और उनसे कहा कि घबराने की कोई बात नहीं हैं। साथ ही हिदायत दी कि यदि दांत में ठंडा गरम लगे तो दिखाने चली आयें  और ध्यान रखें  कि दांत काला न पड.ने पाये। यह कह कर  मैंने एक कागज में कुछ दवाईयाॅ लिख कर उन्हें  दे दीं।
कुछ दिन बाद वह बच्ची अक्सर रिक्शे में बैठी मुझे स्कूल जाते दिखती थी। मैं  समझ गया कि उसका घर कहीं आस पास ही है। करीब एक दो माह के बाद वह महिला फिर एक दिन मेरे क्लीनिक में उस बच्ची का हाथ थामे आई। बच्ची कुछ रूआंसी सी थी। उन्होंने पुरानी बात का ज्रिक करते हुए मुझे बताया कि दांत टूटी हुई जगह से हल्का सा काला पड.ने लगा है। 
उनकी चिंता को दूर करते हुए मैंने  कहा,- "घबराने की आवश्यकता नहीं हैं, दूध के इस दांत को तो टूटना ही है। बस इसे समय से पहले निकालना पड़ेगा । नया दांत फिर कुछ समय बाद अपने आप निकल आयेगा। 
वह नन्ही बच्ची सौम्या हमारी बातों को बडे. ध्यान से सुन रही थी। उसने झट से अपने मुहॅं पर हाथ रखते हुए कहा-  "अंकल मैं दांत नहीं निकलवाउंगी । मुझे बहुत दर्द होगा।" 
मै हंस पड़ा मैंने पूछा- "बेटा तुम्हारा तो अभी तक एक दांत भी नहीं  टूटा  है। फिर तुम्हें  कैसे मालूम कि बहुत दर्द होता है?"
सौम्या बहुत देर तक चुप रही। कई बार पूछने पर उसने बताया कि यह बात घर से चलते समय उसके भाई ने उसे बताई थी। तब मैंने कहा कि उसे भाई ने उससे झूठ कहा है। उसके बिल्कुल दर्द नहीं होगा। उसने बड़ी  मुश्किल से अपना मुहॅं खोला। इंजेक्शन की सुई देखते-देखते उसकी आॅंखे डबडबा उठी। फिर मेरे इंजेक्शन लगाने की कोशिश को उसने एक झटके में अपना हाथ चला कर विफल कर दिया। इंजेक्शन की सुंई टेढ़ी हो गई। आखिरकार हार मानकर उसकी मां  उसे लेकर वापस चली गई क्योंकि फिर सौम्या ने अपना मुहॅं खोला ही नहीं।
लेकिन सौम्या के इस प्रकार चले जाने से समाधान तो होना नहीं था। मजबूरन कुछ समय बाद सौम्या को दोबारा मेरे पास आना पड़ा अब दांत काफी नीचे तक खराब हो चुका था। उसका निकालना अब अति आवश्यक था वर्ना इंफैक्शन जड़ तक बढ़ सकता था। मैंने सौम्या की हिम्मत बढ़ाते  हुए कहा- "बेटे तुम्हारे बिल्कुल दर्द नहीं होगा। तुम कुर्सी के दोनों  डन्डों को जोर से पकड. कर रखो । मैं दवाई लगा देता हूं। यदि दवाई लगाने में दर्द हो तो तुम हाथ हिला देना। मैं समझ जाऊँगा। इसके बाद हम सोचेगें दांत उखाड़ना  है कि नहीं?’ 
सौम्या ने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा। शायद वह यह पढ़ने की कोशिश कर रही थी कि मै उससे सच बोल रहा हूं या झूठ  ? फिर उसने एक नटखट मुस्कान के साथ हाथ बढ़ाते हुए कहा- "तब करिये  प्रौमिस ! आप दांत नहीं उखाड़ेंगे. "
"प्रौमिस बेटे।" - मैंने अपने गले को छूते हुए कहा। 

सौम्या ने ज्यों ही अपना मुहॅं खोला, मैंने फुर्ती से दायें हाथ में छुपाया हुआ इंजैक्शन उसे लगा दिया। मैं जानता था कि सौम्या को मात्र सुईं का भय सता रहा था अन्यथा एनैस्थिसिया के इंजैक्शन का दर्द तो साधारण इंजैक्शन से भी कम होता है। सौम्या जोर से रोने लगी। दर्द नहीं वह घबराहट का रोना था। अतः मैंने सौम्या के हाथ में एक दांत का टुकड़ा रखते हुए कहा- "तुम झूठमूठ रो रही हो। दांत को दवाई लगते ही अपने आप निकल आया और अब तुम्हारे कोई दर्द नही हो रहा है।"
सौम्या एक मिंनट को अचकचा गई। उसने उलट पुलट कर दांत देखा। फिर पाया कि वास्तव में उसके कोई दर्द नहीं हो रहा था। फिर वह क्यों रो रही है ? उसने रोना हल्का कर दिया। फिर उसने अपनी मां व मेरे चेहरे की ओर देखा। दोनों के चेहरो पर हल्की सी मुस्कराहट को देख कर वह समझ गई कि उसको धोखा दे दिया गया है। वह आश्चर्यचकित थी कि बिना दर्द के उसका दांत कैसे बाहर निकल गया अतः अब वह दुगने वेग से रोने लगी। कुछ देर समझाने के बाद वह शान्त हो गई। अब तक मेरा इंजैक्शन काम कर चुका था। दांत की जडे. सुन्न हो चुकी थीं। मैं जानता था कि अब दांत निकालने पर सौम्या को को कोई दर्द नहीं होना था। मैने सौम्या से पानी का कुल्ला करने को कहा। फिर दांत की जड. में रूई लगाने के लिए मुहं खॊलनॆ को कहा। सौम्या की हिम्मत वापस आ गई। उसने दोबारा मुहॅं खोल दिया। अब मैंने  बड़ी  आसानी से उसका खराब दांत उखाड. कर बाहर कर दिया। सौम्या थोड़ी  घबराई जरूर पर असली काला दांत अब उसके हाथ में था। 
"यह क्या हैं अंकल ? " - उसने आश्चर्य से पूछा।
"बेटे, यह हैं तुम्हारा असली काला दांत जो गिर जाने से टूट गया था।" मैंने  हंस कर उत्तर दिया। 
"तो वह पहले वाला दांत ?" - वह धीरे से बुदबुदाई और फिर नाराज होकर बोली-  "अंकल, आपने दो बार मुझसे झूठ बोला है। साथ ही साथ आपने अपने प्रैामिस को भी तोड़ा है। जाइये  मैं  आपसे बात नहीं करती।"- वह रूठ कर बोली। 
थोड़ी  देर बातचीत के बाद उसकी मां वापस जाने को मुड़ी। उन्हॊने सौम्या से कहा- "बेटा अंकल से थैक्यू कहो। देखो तुम्हारा दांत ठीक हो गया।"
पर नाराज सौम्या ने बार बार कहने के बाद भी थैंक्यू नहीं  कहा। फिर अंत में बोली- " अंकल झूठ बोलते हैं और अपना वादा भी तोड. देते हैं। मैं इनको थैंक्यू नहीं कहूंगी।" 
मैं मुस्करा कर रह गया। उनके जाने के बाद मैं अपने काम में व्यस्त हो गया। इसके बाद सौम्या मुझे कई बार रिक्शे से स्कूल जाती दिखती रहती थी। पर जब भी उसका रिक्शा मेरे पास से गुजरता तो वह किसी बच्चे की ओट में छिप जाती। कभी कभी मुझे लगता था कि सौम्या से झूठ बोलकर कहीं मैने गलती तो नहीं की थी ? आखिर एक छोटी घटना से बच्चे का दिल इतना टूट सकता हैं मैं सोच भी नही सकता था।
इस बात की बीते छह-सात महीने हो गए थे।एक दिन मैं क्लीनिक में काम कर रहा था। तभी भड़ाक की आवाज के साथ क्लीनिक का दरवाजा खुला। मैंने देखा सौम्या दौड़ी चली आ रही हैं। मैंने नाराज होकर कहा- " यह क्या बदतमीजी हैं बेटे, दरवाजा इस तरह खोलते हैं क्या ?" 
"अंकल आप अपना सिर नीचे करिये । मुझे कान में एक जरूरी बात कहनी है।" - सौम्या ने एक मधुर आवाज में कहा। मैंने अपना कान नीचे कर दिया। सौम्या ने कान में कुछ न कहकर, धीरे से मेरे गाल को अपने नन्हे होठों से चूम लिया। फिर एक लिफाफा मेरे हाथों में थमा दिया। 
"यह क्या हैं सौम्या ? " -मैने आश्चर्य से पूछा। 
"खोलकर तो देखिये अंकल।" - सौम्या ने उत्तर दिया। 
लिफाफे के अन्दर सौम्या के द्वारा बनाया हुआ एक कार्ड था। जिसमे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। - "थैक्यू डाक्टर।"
मेरे लिफाफा खेालते-खेालते सौम्या वापस भाग चली थी। मैंने सौम्या की ओर देखते हुए आवाज लगाई। - " यह किसलिए सौम्या ? "
मेरे प्रश्न पूछने तक वह दरवाजे के पास पहुँच चुकी थी। उसने पलट कर मेरी ओर देखा। फिर मुस्कुराते हुए अपनी अंगुली से छोटे से निकलते हुए दांत पर इशारा करके बोली- "इस सुन्दर दांत के लिए अंकल।" दूसरे ही क्षण वह वह भड़ाक से दरवाजा बंद करके बाहर चली गई। 
"यह सब क्या चक्कर था डाॅक्टर ? " - मेरे मरीजों व सिस्टर ने एक स्वर में आश्चर्य से मुझसे पूछा। 
"आप लोग नहीं समझेगें। एक नन्हें मरीज ने मुझे माफ ही नहीं किया वरन् मेरे विश्वास को कई गुना बढ़ा दिया हैं।"- मैंने  मुस्कराते हुए कहा और दुगने उत्साह से अपने काम में लग गया।

पार्वती बाई

पार्वती बाई

कहानीः हेम चन्द्र जोशी  


आजकल पता नहीं मुझे क्या हो गया है । जाने अनजाने मेरी घर में किसी न किसी बात पर बहस हो  ही जा रही थी। ऐसा हो क्यों रहा हैं? मुझे स्वयं भी समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु एक बात मैं भली  भांति  जानता था कि मेरा पक्ष सदैव ही सही होता था। पर घर के लोग मेरी बातें अनसुनी कर दे रहे थे। तो क्या छोटों की सही बातें भी  बड़ो  ने नहीं सुननी चाहिये ? ऐसा अक्सर मेरे मन में विचार आता रहता था और मैं मन ही मन शायद खीझ सा जाता था।

एक दिन  मैंने मम्मी को पापा से बातें करते हुये सुना । मम्मी कह रही थीं- ‘‘अतुल आजकल बड़ा हो रहा है। उस पर ध्यान देने की  आवश्कता  है। आप कुछ समय अतुल को भी दिया करें।“

पापा ने धीरे से हामी भरी और बोले- ”क्या करूँ। चाहते हुये भी बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाता हूँ।  कोशिश  करूँगा।“

फिर बात आयी-गयी हो गयी क्यों कि पापा के पास तो आफिस के कामों से ही फुर्सत नहीं थी। अक्सर उनको टूर में जाना पड़ता था। फिर वे आफिस से आते भी काफी देरी से थे। ऐसे में पापा से बहुत ज्यादा बातचीत करना संभव ही न था। पर एक दिन पापा ने मुझको बुलाया और पूछा- ”अतुल आजकल तुम्हारी  पढाई  कैसी चल रही है? घर में तो तुम ज्यादा पढ़ाई करते दिखते नहीं हो।“

”ठीक चल रही है पापा । आप तो टीचर-पेरेन्टस मीटिंग में कालेज आते नहीं । नहीं तो आप मेरी टैस्ट की कापियाँ खुद देख लेते। “ -मैंने कहा।
”यह बात तो सही है।“- पापा ने हामी भरते हुये पूछा-”फिर भी कैसे हुये तुम्हारे टैस्ट । तुमने तो कुछ बताया ही नहीं।“
”बहुत अच्छे हुये पापा। टीचर कर रही थी कि यह लड़का इस बार कक्षा मे प्रथम आ सकता है। सभी बच्चों ने ऐसा ही काम करना चाहिये।“- मैंने उत्तर दिया।
”गुड, वेरी गुड।“ - पापा ने मुस्कराते हुये कहा और पूछा-”दोस्तों के साथ कैसा चल रहा है?“
”बढि़या चल रहा है। अनुज आजकल खेलने नहीं आ रहा है। उसके दादाजी बीमार हैं। ज्यादातर बच्चे आने वाली परीक्षाओं को देखते हुये खेलने कम ही आ रहें हैं।“- मैंने उत्तर दिया।
”भाई तुम भी खेलना कम करों और दूसरों की तरह पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दो।“-पापा ने कहा।

”पापा ये सभी लोग अपना काम समय पर नहीं किया करते हैं इसलिये अब आखिरी समय पर उछल-कूद मचा रहे हैं। मैं तो अपने कार्य नियमित रूप से करता  हूँ । इसी लिये मेरे ऊपर परीक्षाओं का कोई दबाव नहीं है।“- मैंने कहा।

पापा ने मुझे बडे़ गौर से देखा और मेरे  आत्मविश्वाश  को देखते हुये उनके चेहरे पर एक चमक सी आ गयी । वे प्रसन्न थे।
 मैंने मौका ठीक जान कर मन ही मन सोचा कि क्यों न अपने मन की बात पापा से कह  दूँ । अतः मैंने कहा- ”पापा एक बात पूछूँ?“
”हाँ हाँ क्यों नहीं“-पापा ने कहा।
”क्या छोटों की बात को बड़ों ने ध्यान नहीं देना चाहियें ?“- मैंने कहा।
” क्यों   क्या बात हुयी ?“- पापा ने  चौंक  कर पूछा।
”पापा मैंनें जाने कितने समय से घर  में  सब से कह रहा हूँ कि यह हमारी काम वाली बर्तन ठीक से साफ नहीं कर रही है पर कोई ध्यान ही नहीं देता । मुझे रोज कुछ न कुछ गन्दा मिलता है। कभी गिलास, कभी चम्मच तो कभी थाली। पर कोई पार्वती बाई से कोई कुछ कहता ही नहीं है और पार्वती बाई मेरे कहे पर सिर्फ हँस देतीं  है । मेरी बात पर कोई ध्यान देती ही नहीं है।“- मैं एक साँस में पूरी की पूरी बात कह बैठा।
पापा कुछ नहीं बोले। तब मैंने फिर कहा- ”पापा आप काम वाली को बदल क्यों नहीं देते?“
”बेटे, पार्वती हमारे वहाँ तुम्हारे पैदा होने से पहले से काम कर रही है। उसको एकाएक तो हम ऐसे निकाल नहीं सकते। फिर भी मैं  उससे बात करूँगा।“- पापा ने कहा।
”पापा आप उसको डाटियेगा जरूर।“-मैंने खुश होकर कहा।
”ठीक है।“ -कह कर पापा अन्दर चले गये।

दो चार दिन बीत गये। मुझे लगा कि पापा भूल गये होंगे। इसलिये मैंने  मौंका  देखकर पार्वती बाई के साफ किये वे बर्तन दिखाये जिन पर किसी पर साबुन लगा रह गया था या जो ठीक से साफ नहीं हुये थे। पापा ने मेरी बात को ध्यान से सुना और फिर रविवार के दिन पार्वती बाई को समझाते हुये कहा-”पार्वती, आजकल बर्तन ठीक से साफ नहीं हो रहे हैं। कभी-कभी तो इनमें साबुन लगा रह जा रहा है। आप थोड़ी ध्यान से सफाई किया करो।“


”जी साहब।“- पार्वती ने कहा और बोली- ”साहब छोटे भय्या भी शिकायत कर रहे थे। क्या  करूँ  साहब यह बुढ़ापे की वजह से सब गड़बड़ हो जाती है। मैं छोटे भय्या की शिकायत के बाद से ही काफी ध्यान दे रही हूँ।“


बात आयी और गयी । पार्वती बाई के बर्तनों में अब पहले से कम शिकायत थी। फिर भी यदा-कदा गड़बड़ हो ही जाती थी। जो मुझको परेशान करती थी। मुझे ऐसा लगने लगा कि घर वाले और पार्वती बाई भी मेरी बातों में कोई विशेष महत्व नहीं दे रहे हैं।


फिर छुटिटयों में मेरे बड़े भय्या आ गये। मैंने फिर अपना दुखड़ा उनके सामने रोया तो उन्होने मुझसे कहा-”अतुल, पार्वती बाई हमारे घर  में  सालों से काम कर रही है। इस बुढ़ापे में उनको काम से निकालना उचित नहीं है। मैं फिर भी कुछ न कुछ करता हूँ।“

 फिर मैंने एक दिन देखा कि भय्या और पार्वती बाई बहुत देर तक आपस में बातें करते रहे और फिर बाई ने सहमति से दो तीन बार सिर हिला कर हाँ कहा। फिर अगले दिन शाम को जब मैं खेलकर लौटा तो मैंने पाया कि पार्वती बाई भाई साहब के स्कूटर से नीचे उतर रही थी।

तीन चार दिन बाद भाई साहब वापस लौट गये पर एक बात बड़ी विचित्र  हुयी । भाई साहब के जाने के बाद से पार्वती बाई के बर्तनों में अब कोई कमी मैं नहीं  पकड़  सका। बर्तन अब चकाचक साफ मिलते थे। मैं अब बाई के काम से प्रसन्न था। पर यह चमत्कार कैसे हो गया मैं समझ नहीं पाया।

एक सप्ताह बीता और फिर धीरे धीरे पन्द्रह दिन भी बीत गये पर अब पार्वती बाई के काम में कोई कमी नहीं थी। तब मेरे से रहा नहीं गया। मैंने बाई से कहा -” बाई मैंने कहा, पिताजी ने कहा, मम्मी ने कहा पर आपने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। पर अब भय्या ने तुमसे ऐसा क्या कह दिया कि तुम ठीक से बर्तन साफ करने लगी हो।“

पार्वती बाई खिलखिला के हँस दी और काफी देर तक हँसती रहीं । मुझे समझ में नहीं आया कि इसमें हँसने की क्या बात थी। उनको इतनी हँसी आयी कि नाक से उनका चश्मा नीचे निकल सा पड़ा। जब पार्वती बाई ने चश्मा ऊपर को किया तो एकाएक मुझे याद आया कि पार्वती बाई तो चश्मा पहनती ही नहीं है। आज यह चश्मा एकाएक उनकी नाक में कहाँ से आ गया?


”बाई आप ने यह चश्मा लगाना कब से शुरू कर दिया?“- मैंने एकाएक पूछा।


“यह ही तो तुम्हारे भय्या का कमाल है।”- पार्वती बाई बोली-“भय्या, मुझे आंखो के डाक्टर के पास ले गये और मुझे यह चश्मा बनवा कर दे दिया। बस हो गया तुम्हारी समस्या का समाधान । मैं अब अच्छी तरह देख सकी हूँ अतः बर्तन गन्दे छूटने का तो अब कोई सवाल ही नहीं है।”


मैं ठगा सा रह गया। मैं जान गया कि भय्या कितने होशियार हैं कि  उन्होंने  एक ही क्षण में हम सब की समस्या का समाधान कर दिया। पर मैं अब भी फुर्सत के क्षणों में सोचता हूँ कि इस बात की अक्ल मुझे क्यों नहीं आयी?

इतने साल बाद

इतने साल बाद

कहानी : हेम चन्द्र जोशी 


आज मैं बहुत खुश  था।  मेरे बेटे ने फौन पर मुझे सूचना दी थी कि अगले सप्ताह वे सब एक महीने की छुटटी में भारत वापस आ रहे हैं। सच, पिछली बार जब वे लोग  ब्रिटेन  गये थे तो मेरा पोता सचिन उनके गोद में गया था। फिर मैंने इन्टरनैट में वीडियों में बातें करते हुए  उसको लड़खड़ाते हुये चलना सीखते देखा था। वैज्ञानिकों ने भी क्या चीज बना डाली । मीलों दूर होते हुये भी लोग ऐसे लगते हैं कि मानो सामने बैठ कर बातें  कर रहे हों । न जाने कितने दिनों से सचिन को एक एक चीज सीखता हुआ मैं देख रहा था। सचिन ने तो अब चलने के साथ साथ खूब बोलना भी सीख लिया था। आखिर तब से चार साल बीत चुके थे।

जब सचिन इन्टरनैट में मुझसे बातें करता तो मैं मन ही मन  सोचता था कि जब वह वास्तव में मेरे पास आयेगा तो हमको तुरन्त पहचान लेगा क्या ? या फिर हमको एक नयी शुरुवात   करनी पडे़गी। खैर अब तो बहुत शीघ्र  ही वे आने वाले थे।  सब कुछ पता चल ही जाना था। ऐसा ही मन में विचार आ रहा था।
वास्तव में जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो उसके पास कोई काम धाम तो रह नहीं जाता  है। और काम धाम नहीं रहता तो उसके पास बातें करने के लिये भी कोई  नयी चीजें नहीं रहती  है। इसी लिये वह पुरानी यादों को संजोये, उनके बारे में ही शायद  अक्सर सोचा करता है। कम से कम मेरा तो कुछ ऐसा ही हाल है। मैं जब भी इन्टरनैट में बैठकर अपने बेटे को “औन-लाईन” न पाकर भी  झीकता हूँ  तो मेरी  पत्नी अक्सर यही कहती है कि-”आपको तो कोई काम धाम है नहीं। अब आप सोचते हो कि सब अपना काम धाम छोड़कर इन्टरनैट में बैठ जायें । पर ऐसा हो नहीं सकता।“
मुझे कुछ कहते नहीं सूझता था और मैं बड़बडाते हुये कुछ और काम में लग जाता था। पर मेरा मन एकटक बच्चों की ओर ही लगा रहता था। ऐसे ही खाली क्षणों  में जब एक दिन मै अकेला बैठा सोच रहा था तो एकाएक मुझे बचपन की यादें ताजा हो गयी। यह मन भी  कैसा है। एक ही क्षण में यह बुढ़ापे से बचपन में पहुँच  जाता है।
पापा कहते थे कि मेरे दादा जी बहुत अच्छे थे। पापा बताया करते थे कि दादा जी सदा  अपनी कक्षा में प्रथम आया करते थे। यदाकदा पापा जब पिताजी की एक पुरानी डिक्सनरी को प्रयोग करते तो जरूर कहा करते थे कि यह दादा जी को कक्षा-9  में प्रथम आने पर मिली थी। देखो इसमें एक सार्टिफिकेट भी चिपका हुआ है। यही कारण था कि यह शब्दकोष घर  में किताबों के बीच विशिष्ट  स्थान बनाये हुआ था। पिताजी कभी दादाजी की  हस्तलिपि की तारीफ  करते थे तो कभी उनकी अंग्रजी की। पर मेरे बालमन को ये बातें समझ में नहीं आती थीं। क्यों कि दादा जी मुझे बिलकुल पसन्द न थे।
मैं अक्सर दादा जी पर नाराज होकर कहता ”दादाजी, आपके नाखून कितने गन्दे हो रहे हैं। आप इनको काटते क्यों नहीं हैं?“
दादाजी अपने हाथों को देखते और फिर कहते -“ऐसे ज्यादा तो नहीं बढे़ हैं। खाली बातें क्यों करता है?“
मै कहता था कि आप मेरे दोस्तों से मिलने मत आना तब वे  हॅसते हुये कहते थे-”ठीक है यार। तेरे दोस्तो के सामने नहीं आऊंगा । ठीक है?“
मेरी  अक्सर उनसे उनके कपड़ो के बारे में भी नोकझोक हुआ करती थी। मैं उनसे कहता -”दादाजी कमीज बदल लीजिये। देखिये यह गन्दी हो गयी है।“
तब दादाजी अपने कपड़ो को देखते और फिर कहते -“ अरे आज सुबह ही तो कमीज बदली है। इतने जल्दी कैसी गन्दी हो जायेगी?”
”दादा जी, आज आप किचन गार्डन में काम कर रहे थे। वहीं गन्दी हो गयी होगी ।” मैं उनको समझाता था पर वे बात नहीं मानते थे। उधर दादाजी जितना मेरे पास आना चाहते मैं उनसे उतनी ही दूर भागना चाहता था।
उन बचपन की यादों को सोचता हुआ अक्सर मुझे भय रहता कि कहीं सचिन भी मुझसे ऐसा ही व्यवहार तो नहीं करेगा? पर मैं अपने मन की आशंकाओं को किसी के साथ बाँट  भी नहीं सकता था क्यों कि मुझे मालूम था कि सभी एक ही बात कहेंगे -“आपको तो बस ऐसा ही सूझता है।”
फिर वह दिन  भी आ गया जब अपने मां-बाप के साथ सचिन आ पहुंचा। मैं   भी उसको लेने हवाई अडडे पहुंचा । इन्टरनैट में मुझसे खूब बात करने वाला सचिन मुझे कुछ गुमशुम सा दिखायी दिया। सबने कहा कि अभी-अभी आया है इसलिये शरमा रहा है। कार की पिछली सीट में वह मेरे पास ही बैठा पर उसने मुझसे कोई ज्यादा बात नहीं की।
मैंने महसूस किया कि वह  बीच-बीच में मुझको बड़ी गौर से देख रहा है। पर उसके मन  में क्या चल रहा है मैं जान नहीं पाया।
“क्यों सचिन मुझे पहचान रहे हो क्या?” -मैंने बात बढ़ाने के लिये पूछा।
सचिन ने सिर हिला कर हाँमी भर दी पर कुछ बोला नहीं । एक लम्बा रास्ता बस ऐसे ही कट गया पर सचिन में  मुझे वह जोश  नहीं दिखायी दिया जो वह इन्टरनैट में  चैटिंग करते समय दिखाता था।
अगले दिन सुबह सचिन व उसका पापा मेरे कमरे में आये। “उठ गये हैं पापा?”-मेरे बेटे ने पूछा।
“हाँ  हाँ, उठ गया हूँ । “- मैंने  कहा।
“दादा जी, आपका कमरा तो बहुत साफ सुथरा है पर आप इतने गन्दे क्यों बने रहते हो?” -सचिन का प्रश्न  था।
“सचिन। चुप रहो। ”- मेरे बेटे ने उसको डांटा ।
“नहीं नहीं । उसको बोलने दो। “-मैंने कहा और मुझे अपनी वर्षो पुरानी बातें याद आ गयी।

“क्यों सचिन, मेरा क्या गन्दा है ?” मैंने पूछा।
”दादाजी आपके हाथ के नाखून कितने गन्दे हैं। ? पता नहीं आपने कब से नहीं काटे हैं ?“ - सचिन ने कहा।
 “बेटा मैंने तो ये नाखून कल ही काटे थे। ये गन्दे कैसे हो सकते हैं? ” - मैंने आश्चर्य से पूछा।
“ कितने बेतरकीब कटे हुये हैं ये। और फिर जरा अपने पैर के नाखूनों को तो देखिये। कैसे हो गये हैं। ये ? ” -सचिन ने कहा और फिर  मेज से उठा कर मेरा चश्मा  मेरे हाथ में दे दिया।
मैंने चश्मा लगाकर देखने की कोशिश  की और फिर हाथ के स्पर्श  से पैरों के नाखूनों को देखा जो वास्तव में काफी बढ़े हुये थे। मुझे अपने दादाजी कि याद आ गयी । शायद  उनको भी तब दिखायी नहीं देता होगा।
मैंने चश्मा लगाकर देखने की कोशिश की और फिर हाथ के स्पर्श से पैरों के नाखूनों को देखा जो वास्तव में काफी बढे़ हुये थे। मुझे अपने दादा जी कि याद आ गयी।शायद उनको भी तब दिखायी नहीं देता होगा।
”सचिन, तब तो मेरी कमीज भी काफी गन्दी हो गयी होगी? “ - मैंने अनुमान लगा कर पूछा।
“हाँ  हाँ दादा जी । बहुत गन्दी है और पुरानी भी हो चुकी है।-सचिन ने कहा।

मैं समझ गया। सब समय का फेर था। इतने साल बाद मुझे अपने दादा जी याद आ रहे थे और मुझे महसूस हो रहा था कि वे वास्तव में बहुत अच्छे रहे होगें । तभी तो मेरे पिताजी उनकी इतनी बड़ाई किया करते थे। पर एक प्रश्न अभी अनउत्तरित था। आखिर मेरी इन कमजोरियों के लिये जिम्मेवार कौन था?  आखिर मैं या फिर मेरी देखभाल करने वाले घर के छोटे लोग। मैंने तो अपने दादा जी के नाखूनों का या फिर कपड़ो का कभी कोई ध्यान नहीं दिया। पर मैंने सचिन को प्यार से बुलाया और कहा- ”बेटे, अब मेरी आखें तुम्हारी जैसी तेज नहीं हैं। मेरी बूढी आखें अब समझ नहीं पाती है कि क्या गन्दा है और क्या साफ । इसलिये जब जब तक तुम मेरे पास हो मैं चीजों को तुम्हारी आँखों  से देखूँगा। क्या तुम इस जिम्मेवारी को संभालोगे? शायद सचिन को कुछ भी समझ में नहीं आया। और तुरन्त ढूढकर नेलकटर ले आया। उधर गीली आँखों से मेरे बेटे ने आलमारी से निकाल कर साफ कमीज मेरे ओर बढा दी और रूंधे गले से कहा -” पिताजी यह जिम्मेवारी तो हम लोगों की है। लाईये मैं आपके नाखून ठीक कर दूँ ।
मैं अब चिन्ता मुक्त था क्यों मेरा पोता शायद हमसे कहीं अधिक समझदार था।